Thursday, May 30, 2013
Wednesday, May 8, 2013
KGTE Typewriting Hindi Speed - 08-05-2013 (7)
तृश्शूर जिला
त्रिश्शूर भारतीय राज्य केरल का एक जिला है । त्रिसूर केरल का केंद्रीय जिला है।
यह जिला केरल की सांस्कृतिक राजधानी कहलाता है। त्रिसूर उत्तर में पलक्कड़ से,
पूर्व में पलक्कड़
और कोयंबटूर से, दक्षिण में एर्नाकुलम और इदुकी जिलों से तथा पश्चिम में अरब सागर से जुड़ा हुआ
है। त्रिसूर का नाम मलयालम शब्द त्रिस्सिवपेरुर से निकला है जिसका अर्थ होता है शिव
का पवित्र घर। प्राचीन काल में इसे वृषभद्रीपुरम और तेन कैलाशम कहा जाता था। त्रिसूर
जिले ने दक्षिण भारत के राजनैतिक इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। इस जिले
का प्रारंभिक राजनैतिक इतिहास संगम काल के चेर वंश से जुड़ा हुआ है जिन्होंने केरल
के बड़े हिस्से पर शासन किया था।
भगवान श्री कृष्ण को समर्पित गुरुवायूरप्पन मंदिर दक्षिण भारत का अनोख तीर्थस्थल
है। गुरुवायूर में स्थित यह मंदिर दक्षिण का द्वारका कहलाता है। मंदिर में स्थापित
भगवान की मुद्रा वैकुंठधाम के समकक्ष है और इसलिए इस मंदिर को भूलोक वैकुंठ कहा जाता
है। कहा जाता है कि यहां प्रतिमा की स्थापना गुरु बृहस्पति और वायु देव ने की थी इसलिए
इस स्थान का नाम गुरुवायुपुर पड़ा जो बाद में गुरुवायूर कहलाया। यहां भगवान को गुरुवायुरप्पन
कहा आता है जिसका अर्थ है गुरुवायूर का देवता। देवी दुर्गा, भगवान गणेश और भगवान अय्यप्पा के
मंदिर भी इस मंदिर परिसर का हिस्सा हैं। [LOWER – 215] यहां एक पवित्र सरोवर है जिसे रुद्रतीर्थ
कहा जाता है।
त्रिसूर के वदक्कुनाथन मंदिर का निर्माण केरल शैली में किया गया है। यहां पर भगवान
शिव, देवी पार्वती, शंकरनारायण, भगवान गणेश, भगवान राम और भगवान श्रीकृष्ण
की अराधना की जाती है। मुख्य मंदिर में और कूथंबलम में लकड़ी पर की गई खूबसूरत नक्काशी
देखी जा सकती है। माना जाता है कि इस मंदिर की स्थापना भगवान विष्णु के अवतार परशुराम
ने की थी। हर साल अप्रैल और मई के दौरान मंदिर परिसर में त्रिसूर पूरम का आयोजन किया
जाता है। हजारों लोग इस कार्यक्रम को देखने के लिए एकत्रित होते हैं।
वर्तमान त्रिसूर जिले का संपूर्ण भाग चेरा साम्राज्य का हिस्सा था। त्रिसूर की
सांस्कृतिक परंपराएं काफी पुरानी हैं। प्राचीन का से ही यह अध्ययन और संस्कृति का केंद्र
रहा है।
[HIGHER – 346] केरल का सबसे रंगबिरंगा मंदिर उत्सव त्रिसूर पूरम राज्य और राज्य के बाहर के लाखों
श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करता है। यहां के चर्च, मंदिर, समुद्री तट आदि सभी कुछ पर्यटकों
को लुभाते हैं। इसे देखते हुए यहां पर्यटन की अपार संभावनाएं देखी जा रही हैं। [393]
KGTE Typewriting Hindi Speed - 08-05-2013 (6)
मलयालम का साहित्य
मलयालम का साहित्य आठ शताब्दियों से अधिक पुराना है । किन्तु आज तक ऐसा कोई ग्रंथ
प्राप्त नहीं हुआ है जो यहाँ के साहित्य की प्रारंभिक दशा पर प्रकाश डालता हो । अतः
मलयालम साहित्यिक उद्गम से सम्बन्धित कोई स्पष्ट धारणा नहीं मिलती है । अनुमान है कि
प्रारम्भिक काल में लोक साहित्य का प्रचलन रहा होगा । ऐसी कोई रचना उपलब्ध नहीं जिसकी
रचना 1000 वर्ष
पहले की गई है । दसवीं सदी के उपरान्त लिखे गए अनेक ग्रंथों की प्रामाणिकता को लेकर
भी विद्वान एकमत नहीं हैं । केरलीय साहित्य से सामान्यतः मलयालम साहित्य अर्थ लिया
जाता है । लेकिन मलयालम साहित्यकारों का तमिल और संस्कृत भाषा विकास में महत्वपूर्ण
योगदान रहा है । केरल के कुछ विद्वानों ने अंग्रेज़ी, कन्नड़, तुळु, कोंकणी, हिन्दी आदि भाषाओं में भी रचना लिखी
हैं ।
19 वीं शताब्दी के अंतिम चरण तक मलयालम साहित्य का इतिहास प्रमुखतया कविता का इतिहास
है । साहित्य की प्रारंभिक दशा का परिचय देने वाला काव्य ग्रंथ 'रामचरितम्' है जिसे 13 वीं शताब्दी में लिखा गया
बताया जाता है । यद्यपि मलयालम के प्रारंभिक काव्य के रूप में 'रामचरितम्' को माना जाता है फिर भी केरल
की साहित्यिक परंपरा उससे भी पुरानी मानी जा सकती है । प्राचीन काल में केरल को 'तमिऴकम्' का भाग ही समझा जाता था । [LOWER – 201] दक्षिण भारत में सर्वप्रथम
साहित्य का स्रोत भी तमिऴकम की भाषा प्रस्फुरित हुआ था । तमिल का आदिकालीन साहित्य
'संगम कृतियाँ'
नाम से जाना जाता हैं
। संगमकालीन महान रचनाओं का सम्बन्ध केरल के प्राचीन चेर-साम्राज्य से रहा है । 'पतिट्टिप्पत्तु' नामक संगमकालीन कृति में
दस चेर राजाओं के प्रशस्तिगीत है । 'सिलप्पदिकारं' महाकाव्य के प्रणेता इलंगो अडिगल
का जन्म चेर देश में हुआ था । इसके अतिरिक्त तीन खण्डों वाले इस महाकाव्य का एक खण्ड
'वञ्चिक्काण्डम'
का प्रतिपाद्य विषय
चेरनाड में घटित घटनाएँ हैं । संगमकालीन साहित्यिकों में अनेक केरलीय साहित्यकार हैं
।
मलयालम् भाषा अथवा उसके साहित्य की उत्पत्ति के संबंध में सही और विश्वसनीय प्रमाण
प्राप्त नहीं हैं। फिर भी मलयालम् साहित्य की प्राचीनता लगभग एक हजार वर्ष तक की मानी
गई हैं। भाषा के संबंध में हम केवल इस निष्कर्ष पर ही पहुँच सके हैं कि यह भाषा संस्कृतजन्य
नहीं है - यह द्रविड़ परिवार की ही सदस्या है। परंतु यह अभी तक विवादास्पद है कि यह
तमिल से अलग हुई उसकी एक शाखा है, [HIGHER – 363] अथवा मूल द्रविड़ भाषा से विकसित
अन्य दक्षिणी भाषाओं की तरह अपना अस्तित्व अलग रखनेवाली कोई भाषा है। अर्थात् समस्या
यही है कि तमिल और मलयालम् का रिश्ता माँ-बेटी का है या बहन-बहन का। अनुसंधान द्वारा
इस पहेली का हल ढूँढने का कार्य भाषा-वैज्ञानिकों का है और वे ही इस गुत्थी को सुलझा
सकते हैं। जो भी हो, इस बात में संदेह नहीं है कि मलयालम् का साहित्य केवल उसी समय पल्लवित होने लगा
था जबकि तमिल का साहित्य फल फूल चुका था। संस्कृत साहित्य की ही भाँति तमिल साहित्य
को भी हम मलयालम् की प्यास बुझानेवाली स्त्रोतस्विनी कह सकते हैं। [464]
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