Thursday, May 30, 2013
Wednesday, May 8, 2013
KGTE Typewriting Hindi Speed - 08-05-2013 (7)
तृश्शूर जिला
त्रिश्शूर भारतीय राज्य केरल का एक जिला है । त्रिसूर केरल का केंद्रीय जिला है।
यह जिला केरल की सांस्कृतिक राजधानी कहलाता है। त्रिसूर उत्तर में पलक्कड़ से,
पूर्व में पलक्कड़
और कोयंबटूर से, दक्षिण में एर्नाकुलम और इदुकी जिलों से तथा पश्चिम में अरब सागर से जुड़ा हुआ
है। त्रिसूर का नाम मलयालम शब्द त्रिस्सिवपेरुर से निकला है जिसका अर्थ होता है शिव
का पवित्र घर। प्राचीन काल में इसे वृषभद्रीपुरम और तेन कैलाशम कहा जाता था। त्रिसूर
जिले ने दक्षिण भारत के राजनैतिक इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। इस जिले
का प्रारंभिक राजनैतिक इतिहास संगम काल के चेर वंश से जुड़ा हुआ है जिन्होंने केरल
के बड़े हिस्से पर शासन किया था।
भगवान श्री कृष्ण को समर्पित गुरुवायूरप्पन मंदिर दक्षिण भारत का अनोख तीर्थस्थल
है। गुरुवायूर में स्थित यह मंदिर दक्षिण का द्वारका कहलाता है। मंदिर में स्थापित
भगवान की मुद्रा वैकुंठधाम के समकक्ष है और इसलिए इस मंदिर को भूलोक वैकुंठ कहा जाता
है। कहा जाता है कि यहां प्रतिमा की स्थापना गुरु बृहस्पति और वायु देव ने की थी इसलिए
इस स्थान का नाम गुरुवायुपुर पड़ा जो बाद में गुरुवायूर कहलाया। यहां भगवान को गुरुवायुरप्पन
कहा आता है जिसका अर्थ है गुरुवायूर का देवता। देवी दुर्गा, भगवान गणेश और भगवान अय्यप्पा के
मंदिर भी इस मंदिर परिसर का हिस्सा हैं। [LOWER – 215] यहां एक पवित्र सरोवर है जिसे रुद्रतीर्थ
कहा जाता है।
त्रिसूर के वदक्कुनाथन मंदिर का निर्माण केरल शैली में किया गया है। यहां पर भगवान
शिव, देवी पार्वती, शंकरनारायण, भगवान गणेश, भगवान राम और भगवान श्रीकृष्ण
की अराधना की जाती है। मुख्य मंदिर में और कूथंबलम में लकड़ी पर की गई खूबसूरत नक्काशी
देखी जा सकती है। माना जाता है कि इस मंदिर की स्थापना भगवान विष्णु के अवतार परशुराम
ने की थी। हर साल अप्रैल और मई के दौरान मंदिर परिसर में त्रिसूर पूरम का आयोजन किया
जाता है। हजारों लोग इस कार्यक्रम को देखने के लिए एकत्रित होते हैं।
वर्तमान त्रिसूर जिले का संपूर्ण भाग चेरा साम्राज्य का हिस्सा था। त्रिसूर की
सांस्कृतिक परंपराएं काफी पुरानी हैं। प्राचीन का से ही यह अध्ययन और संस्कृति का केंद्र
रहा है।
[HIGHER – 346] केरल का सबसे रंगबिरंगा मंदिर उत्सव त्रिसूर पूरम राज्य और राज्य के बाहर के लाखों
श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करता है। यहां के चर्च, मंदिर, समुद्री तट आदि सभी कुछ पर्यटकों
को लुभाते हैं। इसे देखते हुए यहां पर्यटन की अपार संभावनाएं देखी जा रही हैं। [393]
KGTE Typewriting Hindi Speed - 08-05-2013 (6)
मलयालम का साहित्य
मलयालम का साहित्य आठ शताब्दियों से अधिक पुराना है । किन्तु आज तक ऐसा कोई ग्रंथ
प्राप्त नहीं हुआ है जो यहाँ के साहित्य की प्रारंभिक दशा पर प्रकाश डालता हो । अतः
मलयालम साहित्यिक उद्गम से सम्बन्धित कोई स्पष्ट धारणा नहीं मिलती है । अनुमान है कि
प्रारम्भिक काल में लोक साहित्य का प्रचलन रहा होगा । ऐसी कोई रचना उपलब्ध नहीं जिसकी
रचना 1000 वर्ष
पहले की गई है । दसवीं सदी के उपरान्त लिखे गए अनेक ग्रंथों की प्रामाणिकता को लेकर
भी विद्वान एकमत नहीं हैं । केरलीय साहित्य से सामान्यतः मलयालम साहित्य अर्थ लिया
जाता है । लेकिन मलयालम साहित्यकारों का तमिल और संस्कृत भाषा विकास में महत्वपूर्ण
योगदान रहा है । केरल के कुछ विद्वानों ने अंग्रेज़ी, कन्नड़, तुळु, कोंकणी, हिन्दी आदि भाषाओं में भी रचना लिखी
हैं ।
19 वीं शताब्दी के अंतिम चरण तक मलयालम साहित्य का इतिहास प्रमुखतया कविता का इतिहास
है । साहित्य की प्रारंभिक दशा का परिचय देने वाला काव्य ग्रंथ 'रामचरितम्' है जिसे 13 वीं शताब्दी में लिखा गया
बताया जाता है । यद्यपि मलयालम के प्रारंभिक काव्य के रूप में 'रामचरितम्' को माना जाता है फिर भी केरल
की साहित्यिक परंपरा उससे भी पुरानी मानी जा सकती है । प्राचीन काल में केरल को 'तमिऴकम्' का भाग ही समझा जाता था । [LOWER – 201] दक्षिण भारत में सर्वप्रथम
साहित्य का स्रोत भी तमिऴकम की भाषा प्रस्फुरित हुआ था । तमिल का आदिकालीन साहित्य
'संगम कृतियाँ'
नाम से जाना जाता हैं
। संगमकालीन महान रचनाओं का सम्बन्ध केरल के प्राचीन चेर-साम्राज्य से रहा है । 'पतिट्टिप्पत्तु' नामक संगमकालीन कृति में
दस चेर राजाओं के प्रशस्तिगीत है । 'सिलप्पदिकारं' महाकाव्य के प्रणेता इलंगो अडिगल
का जन्म चेर देश में हुआ था । इसके अतिरिक्त तीन खण्डों वाले इस महाकाव्य का एक खण्ड
'वञ्चिक्काण्डम'
का प्रतिपाद्य विषय
चेरनाड में घटित घटनाएँ हैं । संगमकालीन साहित्यिकों में अनेक केरलीय साहित्यकार हैं
।
मलयालम् भाषा अथवा उसके साहित्य की उत्पत्ति के संबंध में सही और विश्वसनीय प्रमाण
प्राप्त नहीं हैं। फिर भी मलयालम् साहित्य की प्राचीनता लगभग एक हजार वर्ष तक की मानी
गई हैं। भाषा के संबंध में हम केवल इस निष्कर्ष पर ही पहुँच सके हैं कि यह भाषा संस्कृतजन्य
नहीं है - यह द्रविड़ परिवार की ही सदस्या है। परंतु यह अभी तक विवादास्पद है कि यह
तमिल से अलग हुई उसकी एक शाखा है, [HIGHER – 363] अथवा मूल द्रविड़ भाषा से विकसित
अन्य दक्षिणी भाषाओं की तरह अपना अस्तित्व अलग रखनेवाली कोई भाषा है। अर्थात् समस्या
यही है कि तमिल और मलयालम् का रिश्ता माँ-बेटी का है या बहन-बहन का। अनुसंधान द्वारा
इस पहेली का हल ढूँढने का कार्य भाषा-वैज्ञानिकों का है और वे ही इस गुत्थी को सुलझा
सकते हैं। जो भी हो, इस बात में संदेह नहीं है कि मलयालम् का साहित्य केवल उसी समय पल्लवित होने लगा
था जबकि तमिल का साहित्य फल फूल चुका था। संस्कृत साहित्य की ही भाँति तमिल साहित्य
को भी हम मलयालम् की प्यास बुझानेवाली स्त्रोतस्विनी कह सकते हैं। [464]
KGTE Typewriting Hindi Speed - 08-05-2013 (5)
कोष़िक्कोड
दक्षिण भारत के केरल राज्य में अरब सागर के दक्षिण पश्चिम तट पर कोष़िक्कोड या
कालीकट स्थित है। इसके पश्चिम में विस्तृत और शांत अरब सागर फैला हुआ है और पूर्व में
वयनाड की पहाड़ियों इसकी खूबसूरती में चार चांद लगाती हैं। यहां की हरियाली,
शांत वातावरण,
ऐतिहासिक इमारतें,
वन्य जीव अभ्यारण्य,
नदियां, पहाड़ियां आदि को देख बड़ी
संख्या में पर्यटकों बरबस ही यहां खींचे चले आते है।
यह मैदान नगर के बीचों बीच स्थित है। यह स्थान जमोरिन शासकों के महल का विशाल आंगन
हुआ करता था। अब इसे एक खूबसूरत पार्क में तब्दील कर दिया गया है। इसके चारों ओर केरल
के पारंपरिक मकान बने हुए हैं। नजदीक ही एक विशाल पानी का टैंक है। शहर के पूर्वी भाग के तट पर दूर-दूर तक फैला यह बीच अनोखा
नजारा प्रस्तुत करता है। समुद्र तट पर सूर्योदय के समय सूर्य की लालिमा जब रेत पर पडती
है तो उस वक्त दृश्य बडा ही अनोखा लगता है। लाइट हाउस, लायन्स पार्क और एक्वेरियम को भी
यहां देखा जा सकता है। यह स्थान मार्शल आर्ट का
वाणिज्यिक केन्द्र है। उत्तरी मालाबार के पौराणिक नायक तचोली ओथेनाम का यहां जन्म हुआ
था। वाडाकर ने ही मार्शल आर्ट की महान परंपरा विकसित की थी। प्राचीन काल में वाडाकर व्यापारिक
और वाणिज्यिक गतिविधियों का केन्द्र था। [LOWER – 212]
कोष़िक्कोड में बह्मांड की गुत्थियों को समझने और तारों व ग्रहों के विषय में महत्वपूर्ण
जानकारियां हासिल करने के लिए तारामंडल आप जा सकते है। जाफरखान कालोनी में स्थित इस
प्लेनेटोरियम में बहुत से खेलों और पहेलियों के माध्यम से अपना समय व्यतीत किया जा
सकता है। कोष़िक्कोड में स्थित यह
झील प्राकृतिक और ताजे पानी की झील है। घास और हरे भरे पेड़ों से घिरी यह झील शांत
वातावरण के अभिलाषी लोगों के लिए आदर्श जगह है। कोष़िक्कोडसिटी सेंटर में स्थित यह मंदिर कालीकट के जमोरिन साम्राज्य
की यादगार निशानी है। रेवती पट्टाथानम नामक वार्षिक शैक्षणिक प्रतियोगिता यहां आयोजित
की जाती है। ड्राई फूड और शुद्ध नारियल
के तेल से बना कोष़िक्कोड का मीठा हलवा पर्यटक अपने साथ ले जाना नहीं भूलते। साथ ही
केले के चिप्स की खरीददारी भी अधिकांश पर्यटक करते हैं। [HIGHER – 347] कोर्ट रोड़ में मसालों का
बाजार ताजे मसालों की खरीददारी करने के लिए उत्तम जगह है। अरबी पानी के जहाजों के नमूनों
को यहां से खरीदा जा सकता है। कोष़िक्कोड हैंडलूम कपड़ों के लिए भी काफी लोकप्रिय है। [385]
KGTE Typewriting Hindi Speed - 08-05-2013 (4)
कोल्लम
कोल्लम केरल में
अरब सागर के तट पर अष्टमुदी झील के निकट बसा एक बंदरगाह नगर है। व्यवसायिक दृष्टि से
महत्वपूर्ण इस नगर का प्राचीन काल से विशेष महत्व रहा है। इब्न बतूता ने 14वीं शताब्दी में इसे भारत
के पांच बड़े बंदरगाहों में शुमार किया था। माना जाता है कि इस शहर की स्थापना नौवीं
शताब्दी में सीरिया के व्यापारी सपीर ईसो ने की थी। कोल्लम को यहां की प्राकृतिक खूबसूरती
और विविधताओं के लिए जाना जाता है। समुद्र, झील, मैदान, पहाड़, नदियां, बैकवाटर, जंगल, घने जंगल आदि विविधताएं इसे अन्य
स्थानों से पृथक करती हैं।
कोल्लम की सीमाओं से पत्तनमत्तिट्टा जिला और आलप्पुषा़ जिला उत्तरी ओर,
तथा तिरुअनन्तपुरम
जिला दक्षिणी ओर से लगते हैं। इस मंदिर में पांड्य शैली
का स्पष्ट छाप देखा जा सकता है। मंदिर में 12 से 16वीं के शताब्दी पुराने अभिलेख खुदे
हुए हैं। मंदिर में व्याला दैत्य की नक्कासीदार मूर्ति बनी हुई है। पूनालुर से 80 किमी. दूर स्थित यह एक लोकप्रिय तीर्थस्थल
है। यहां के घने जंगलों के बीचों बीच सास्था मंदिर बना हुआ है। मंदिर में स्थापित सास्था
की मूर्ति ईसा युग से कुछ शताब्दी पूर्व की मानी जाती है। मांडला पूजा और रेवती नामक
दो पर्व यहां बड़े धूमधाम से मनाए जाते हैं। [LOWER
– 203]
अलुमकडावू कोल्लम शहर से 26 किमी. दूर कोल्लम-अलप्पुजा राष्ट्रीय जलमार्ग पर स्थित है। यहां
का ग्रीन चैनल बेकवाटर रिजॉर्ट देशी-विदेशी पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र रहता है।
यहां दूर-दूर तक फैला नीला-हरा पानी इसकी सुंदरता में चार चांद लगाता है। सैकड़ों की
तादाद में लगे नारियल के पेड़ ग्रीन चैनल रिजॉर्ट को एक अलग ही पहचान देते हैं। मायानद अपने मंदिरों के लिए चर्चित है। उमयनल्लौर में
बना सुब्रह्मण्य मंदिर यहां के नौ मंदिरों में अपना विशेष स्थान रखता है। माना जाता
है कि यह मंदिर महान हिन्दू दार्शनिक शंकराचार्य को समर्पित है। मायानद कोल्लम से 10
किमी. की दूरी पर है।
कोल्लम से यहां के लिए नियमित बस सेवाएं हैं। इस पवित्र तीर्थस्थल की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यहां के परब्रह्म
मंदिर में कोई प्रतिमा स्थापित नहीं है, बल्कि यह मंदिर विश्व बंधुत्व को समर्पित है। आचिरा काली
पर्व यहां बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। [HIGHER – 352] चदायमंगलम गांव की इस विशाल चट्टान
का नाम पौराणिक पक्षी जटायु के नाम पर पड़ा। कहा जाता है कि रावण से संघर्ष के दौरान
वह इस पर गिर पड़ा था। जटायु ने सीता को रावण के चुंगल से मुक्त कराने का प्रयास किया
था। [396]
KGTE Typewriting Hindi Speed - 08-05-2013 (3)
कोच्चि
कोचीन या कोच्चि केरल प्रान्त का एक तटीय शहर है। कोच्चि भारत
का एक प्रमुख पत्तन है। इसे अरब सागर की राणी माना जाता हैं । केरल की सबसे बडी शहर
ओर वाणिज्य की केन्द्र हैं।केरल के तटवर्ती शहर कोच्चि को अरब सागर की रानी कहा जाता
है। केरल का यह शहर औद्योगिक और वाणिज्यिक गतिविधियों का केन्द्र है। कोच्चि में पुर्तगाली, यहूदी, ब्रिटिश, फ्रेंच, डच और चाइनीज संस्कृति का मिला जुला रूप
देखने को मिलता है। पुर्तगालियों के आगमन से पूर्व कोच्चि का इतिहास स्पष्ट नहीं है।
पुर्तगालियों का आना कोच्चि के इतिहास में अहम पड़ाव साबित हुआ।
कोच्चि के राजाओं ने इन विदेशियों का स्वागत किया क्योंकि उन्हें कालीकट के जमोरिन
की शत्रुता के कारण एक शक्तिशाली सहयोगी की तलाश थी। यहूदियों ने भी केशव राम वर्मा
के शासनकाल में राजकीय संरक्षण प्राप्त किया। ये यहूदी मूल रूप से कोदनगलूर से व्यापार
के उद्देश्य से आए थे। 17वीं शताब्दी
में कोच्चि का बंदरगाह डच के अधीन हो गया था। आगे चलकर 1795 में कोच्चि पर अंग्रेजों ने अधिकार जमा
लिया था जो भारत के आजादी के साथ ही मुक्त हुआ।
यह महल मूल रूप से पुर्तगालियों द्वारा बनवाया गया और कोचीन
के राजा वीर केरला वर्मा को भेंट किया गया था। [LOWER – 203] बाद में
डच का इस पर अधिकार हो गया। उन्होंने 1663 में किले
की मरम्मत कराई और किले को नया रूप दिया। इस किले में कोचीन के कई राजाओं का राज्याभिषेक
हुआ था। इस किले में रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों से संबंधित पेंटिंग्स बनी
हुई है। इस महल को देखने के लिए बड़ी संख्या में पर्यटक यहां
आते हैं। डच लोगों द्वारा बनवाया गया यह महल बोलघट्टी द्वीप पर स्थित है। इस महल को
अब एक लक्जरी होटल में तब्दील कर दिया गया है। बोलघट्टी में एक गोल्फ कोर्स भी है।
यहां पर लोग पिकनिक मनाने भी आते है। 19वीं शताब्दी
में कोच्चि के राजा द्वारा यह महल बनवाया गया था। अब इसे केरला पुरातत्व विभाग के संग्रहालय
में परिवर्तित कर दिया गया है। संग्रहालय में चित्रकारी, नक्काशी
और राजकीय वंश से संबंधित वस्तुओं को रखा गया हैं। इन्डो-युरोपियन
शैली में बना यह बंगला 1667 ई. में बनवाया गया था। [HIGHER – 354] डच किले
के स्ट्रोमबर्ग बेशन में स्थित होने के कारण इसका नाम बेशन बंगला पड़ा। इसकी छत में
टाइलें लगी हुईं हैं और बरांमदा लकड़ी का बना हुआ है।
KGTE Typewriting Hindi Speed - 08-05-2013 (2)
केरल की भाषा
केरल की भाषा मलयालम है जो द्रविड़ परिवार की भाषाओं में एक है । मलयालम भाषा के
उद्गम के बारे में अनेक सिद्धान्त प्रस्तुत किए गए हैं । एक मत यह है कि भौगोलिक कारणों
से किसी आदी द्रविड़ भाषा से मलयालम एक स्वतंत्र भाषा के रूप में विकसित हुई । इसके
विपरीत दूसरा मत यह है कि मलयालम तमिल से व्युत्पन्न भाषा है । ये दोनों प्रबल मत हैं
। सभी विद्वान यह मानते हैं कि भाषाई परिवर्त्तन की वजह से मलयालम उद्भूत हुई । तमिल,
संस्कृत दोनों भाषाओं
के साथ मलयालम का गहरा सम्बन्ध है । मलयालम का साहित्य मौखिक रूप में शताब्दियाँ पुराना
है । परंतु साहित्यिक भाषा के रूप में उसका विकास 13 वीं शताब्दी से ही हुआ था । इस काल
में लिखित 'रामचरितम' को मलयालम का आदि काव्य माना जाता है।
मलयालम केरल और लक्षद्वीप की प्रमुख भाषा है । द्रविड भाषाओं में से एक मलयालम
है, की उत्पत्ति
को लेकर कई सिद्धान्त प्रचलित हैं । सर्वाधिक स्वीकृत सिद्धान्त यह है कि ईस्वी सन्
9 वीं शताब्दी
में केरल में प्रचलित तमिल से मलयालम स्वतंत्र भाषा के रूप में विकसित हुई । यह तीन
करोड़ से अधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा है और उसके बोलने वाले केरल के बाहर
सऊदी अरब तथा खाड़ी क्षेत्र के देशों में भी रहते हैं । [LOWER – 206] साहित्यिक भाषा के रूप में
मलयालम का विकास 13 वीं सदी से होने लगा । 9 वीं सदी से मलयालम लेखन के लिए 'वट्टेष़ुत्तु लिपि' का प्रयोग हुआ । किन्तु 16
वीं शती में प्रयुक्त
'ग्रन्थलिपि'
से आधुनिक मलयालम लिपि
विकसित हुई ।
मलयालम की वर्णमाला को लेकर विभिन्न मत पाये जाते हैं । 'केरल पाणिनीयम' के रचयिता ए. आर. राजराजवर्मा
का मत है कि मलयालम में अर्थभेद उत्पन्न करने वाले 53 सबसे छोटे वर्ण या स्वनिम हैं
। इन्हीं वर्णों को अक्षर माना जाता है । मलयालम का सर्वाधिक प्रामाणिक व्याकरण ग्रन्थ
होने का गौरव 'केरल पाणिनीयम' को प्राप्त है । मलयालम व्याकरण की रचना करने वाले अन्य वैयाकरण हैं - हेरमन गुण्डेर्ट,
जॉर्ज मात्तन,
कोवुण्णि नेडुंगाडि,
शेषगिरि प्रभु आदि
। मलयालम के विकास एवं पोषण संवर्द्धन में समृद्ध साहित्य, पत्र - पत्रिकाएँ तथा पुस्तक - प्रकाशन
की व्यापक व्यवस्था आदि महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । केरल की शिक्षा प्रणालियों
तथा सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं रही । [HIGHER – 359]
KGTE Typewriting Hindi Speed - 08-05-2013 (1)
केरल की अर्थव्यवस्था
भारत के एक राज्य के रूप में केरल की आर्थिक व्यवस्था की अपनी विशेषताएँ हैं ।
मानव संसाधन विकास की आधारभूत सूचना के अनुसार केरल की उपलब्धियाँ प्रशंसनीय है। मानव
संसाधन विकास के बुनियादी तत्त्वों में उल्लेखनीय हैं - भारत के अन्य राज्यों की तुलना
में आबादी की कम वृद्धि दर, राष्ट्रीय औसत सघनता से ऊँची दर, ऊँची आयु-दर, गंभीर स्वास्थ्य चेतना,
कम शिशु मृत्यु दर,
ऊँची साक्षरता,
प्राथमिक शिक्षा की
सार्वजनिकता, उच्च शिक्षा की सुविधा आदि आर्थिक प्रगति के अनुकूल हैं ।
वैश्वीकरण के प्रतिकूल प्रभाव ने कृषि तथा अन्य परम्परागत क्षेत्रों को बहुत कम
कर दिया है ।स्वातंत्र्य पूर्व तिरुवितांकूर, कोच्चि, मलबार क्षेत्रों का विकास आधुनिक
केरल की आर्थिक व्यवस्था की पृष्ठभूमि है । भौगोलिक एवं प्राकृतिक विशेषताएँ केरल की
आर्थिक व्यवस्था को प्राकृतिक संपदा के वैविध्य के साथ श्रम संबन्धी वैविध्य भी प्रदान
करती हैं । केरल में कृषि खाद्यान्न और निर्यात की जानेवाली फसलों के लिए बिल्कुल उपयुक्त
है। शासन व्यवस्था तथा व्यापार के कारण निर्यात की जानेवाली फसलों बढ़ोतरी हुई है।
कयर उद्योग, लकडी उद्योग, खाद्य तेल उत्पादन आदि भी कृषि पर आधारित हैं । आधुनिक केरल की आर्थिक
व्यवस्था में आप्रवासी केरलीयों का मुख्य योगदान है। केरल की आर्थिक व्यवस्था के सुदृढ
आधार हैं - वाणिज्य बैंक, सहकारी बैंक, मुद्रा विनिमय व्यवस्था, यातायात का विकास, शिक्षा [LOWER – 207] - स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों
में हुई प्रगति, शक्तिशाली श्रमिक आन्दोलन, सहकारी आन्दोलन आदि ।
भारतीय संघ का अभिभाज्य अंग होने के कारण केरल की आर्थिक व्यवस्था को राष्ट्रीय
आर्थिक व्यवस्था से पृथक करना उचित नहीं है । फिर भी केरल की आर्थिक व्यवस्था की अपनी
विशेषताएँ हैं । मानव संसाधन विकास की आधारभूत सूचना के अनुसार केरल की उपलब्धियाँ
प्रशंसनीय है। मानव संसाधन विकास के बुनियादी तत्त्वों में उल्लेखनीय हैं - भारत के
अन्य राज्यों की तुलना में आबादी की कम वृद्धि दर, राष्ट्रीय औसत सघनता से ऊँची दर,
ऊँची आयु-दर,
गंभीर स्वास्थ्य चेतना,
कम शिशु मृत्यु दर,
ऊँची साक्षरता,
प्राथमिक शिक्षा की
सार्वजनिकता, उच्च शिक्षा की सुविधा आदि आर्थिक प्रगति के अनुकूल हैं । परन्तु उत्पादन क्षेत्र
में मंदी, ऊँची बेरोज़गारी दर, बढ़ता बाज़ार-भाव, निम्न प्रतिशीर्ष आमदनी, उपभोक्ता वाद का प्रभाव आदि के कारण
केरल की अर्थ-व्यवस्था जटिल होती जा रही है । लम्बी आयु दर के मामले में केरल की तुलना
दक्षिण कोरिया, मलेशिया, चीन आदि से की जा सकती है । [HIGHER – 365] किन्तु वे तीनों केरल से भिन्न देश हैं और आर्थिक विकास
के पथ पर अग्रसर हैं । यद्यपि मानव संसाधन विकास के सूचकों के अनुसार केरल भारतीय राज्यों
में अग्रणी है । भूतकाल में केरल की प्रति व्यक्ति आय दर राष्ट्रीय आय दर से नीचे थी
। जबकि केरल की आर्थिक व्यवस्था विकास का गुण प्रकट करती है । अस्सी के दशक के अंत
में केरल का आर्थिक विकास औसत राष्ट्रीय आर्थिक विकास की दर से आगे निकल गया है । यह
विकास अभी भी जारी है । किन्तु मात्र इसी से राज्य की स्थिति मज़बूत नहीं बनती। 457
Monday, April 15, 2013
KGTE Typewriting Hindi Model Question Paper - Speed Lower & Higher
केरल का भोजन
केरलीयों का प्रमुख भोजन चावल है । मलयाली साग-सब्जियाँ, मछली, मांस, अंडा इत्यादि से बनी सब्जियों
से मिलाकर चावल खाना पसन्द करते हैं । गेहूँ, मैदा आदि भी केरलीयों को प्रिय है
। यहाँ ऐसे पकवान प्रिय हैं जो भाप में पकाये जाते हैं या फिर तैल में तले जाते हैं
। मीठी खीर भी यहाँ पसन्द की जाती है । कंदमूलों को पकाकर बनाये जानेवाले खाद्य भी
यहाँ खाये जाते हैं । आजकल केरलीयों के खाद्य पदार्थों, खाद्य संस्कारों तथा पाक कला में
ऐसा परिवर्तन आया है जो भारत के अन्य क्षेत्रों के प्रभाव का परिणाम है, ओपनिवेशिकता के परिणाम स्वरूप
विदेशी प्रभाव भी इसका कारण है ।
वर्तमान कालीन केरल में प्रांतीय भोजन के स्थान पर जो संस्कार बना है उसमें बहुदेशीय
संस्कार का प्रभाव है, किन्तु चावल, भात तथा नारियल केरलीय भोजन का प्रमुख अंग है । केरल
के भोजन संस्कार को रूपायित करने में धर्म, जाति-संप्रदाय, औपनिवेशिकता इत्यादि का बडा
योगदान है । 15 वीं सदी में पुर्तगाली शासक लैटिन अमरिका से अनेक साग-सब्जियाँ लाए जिनका केरलीय
खाद्य पदार्थों में प्रमुख स्थान हैं । यदि केरल के भोजन संस्कार का इतिहास पढ़ें तो
उपर्युक्त विभिन्न स्रोतों का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होगा । केरल में भोजन संबन्धित
अनेक रीति-रिवाज़ हैं । यहाँ खाना परोसने का विशेष प्रकार है । 'सद्या' नाम से अभिहित दावत या प्रीति
भोज भी केरल में विशेष महत्व रखती हैं । [LOWER – 214] केरल की अपनी पाक-कला भी है । किन्तु
सम्पूर्ण केरल की पाक-कला एक समान नहीं है । सामान्यतया उत्तर केरल, मध्य केरल तथा दक्षिण केरल
की पाक-कला में थोडी-बहुत भिन्नता है । हिन्दू, ईसाई, मुस्लिम धर्मावलंबियों की पाक-कला
एक दूसरे से भिन्न है । अक्सर गाँवों की पाक-कला में भी अंतर पाया जाता है । हिन्दू
धर्म की भिन्न-भिन्न जातियों के बीच भी पाक-कला में भिन्नता रहती है । हिन्दू मंदिरों
में जो प्रसाद दिया जाता है वह विशेष पाक-विधि से बनाया जाता है । सामान्यतः
केरल का भोजन तीखा और खुश - सुगन्धित होता है । केले के पत्ते में भोजन करने का रिवाज़
पुराने काल से ही चला आ रहा है । बर्तनों में भोजन करने की रीति बाद में चली । आज भी
प्रीतिभोज में केले के पत्ते का प्रयोग होता है।
केरल के भोजन - संस्कार का ही हिस्सा है उपवास । भोजन पर नियंत्रण करने का उद्देश्य
स्वास्थ्य संरक्षण था । [HIGHER – 358] सवर्ण जाति के लोग उपवासों का अनुष्ठान करते थे । केरल
में आज भी उपवासों का अनुष्ठान होता रहता है । उपवास ही भोजन-व्रत का आधार है । यद्यपि
प्रत्येक उपवास स्वास्थ्य संरक्षण की दृष्टि से किया जाता है तो भी धार्मिक अनुष्ठान
के रूप में उसको स्थान दिया गया है । प्रत्येक मास की एकादशी, शुक्ळ पक्ष और श्वेत पक्ष,
मास का प्रथम शनिवार,
श्रावण मास की चतुर्थी,
संक्रान्ति,
अष्टमी रोहिणी,
शिवरात्रि आदि दिनों
में व्रत का अनुष्ठान होता था । सोम-व्रत स्त्रियों का उपवास है । व्रत कई प्रकार के
होते हैं किसी-किसी में चावल नहीं खाया जाता, पानी तक न पिया जाता, रात्रि-भोजन नहीं किया जाता
। [461]
KGTE Typewriting Hindi - Model Question Paper - Speed (Lower & Higher)
केरल की चित्रकला
प्राचीन काल में जब से केरल की पर्वतीय गुफाओं में मनुष्य निवास करने लगे थे तभी
से चित्रकला की परंपरा आरंभ हुई होगी । प्राचीन गुफाओं के चित्रांकन इसका प्रमाण हैं
। इस प्रकार के चित्र जिन गुफाओं में उपलब्ध हैं वे हैं वयनाड की एडक्कल गुफा,
इडुक्कि में मरयूर
की एष़ुत्ताले गुफा, तिरुवनन्तपुरम के पेरुंकडविलयिल की पाण्डवन पारा गुफा (यह गुफा पत्थर के खनन के
कारण अब नष्ट हो गयी) आदि। कोल्लम जिले के तेन्मला की चन्तरुणिवन गुफा में भी गुफाचित्र
मिलते हैं । इन चित्रों में प्रधान हैं - पत्थर की दीवारों पर उत्कीर्ण किए गुफा चित्र
और शिला चित्र ।
एडक्कल गुफा वयनाड के अंपलवयल के पास अंपुकुत्ति पहाडी पर स्थित है। यहाँ गुफा
- भित्तियों पर उकेरे गये अतिप्राचीन चित्र मिलते हैं । अधिकांश चित्र पौन इंच से एक
इंच तक चौडाई और एक इंच गहराई लिए हैं । चित्रों में मनुष्य की आकृतियाँ अनुष्ठान कलापरक
नृत्य करते हुए उकेरी गई हैं । लगभग सभी मानव आकृतियों में पत्तों से बनाये केशालंकार
दिखाई देते हैं । साथ में हाथी, शिकारी कुत्ते, हिरण आदि पशुओं की आकृतियाँ भी हैं । इनके अतिरिक्त ज्यामितीय
आकार भी अंकित किये गये हैं । साथ ही धुरि सहित पहियों वाली गाडियाँ भी अंकित है ।
अनुमान है कि एडक्कल चित्र नवीन प्रस्तर युग में निर्मित किये गये हैं । [LOWER – 206]
तीवरि पर्वत के पुराप्पारा नामक पत्थर के द्वार पर भी इस प्रकार के चित्र हैं ।
यहाँ अस्त्र, कुष़िप्पारा आदि हथियारों एवं पक्षियों के चित्र भी दिखाई पड़ते हैं । मरयूर की
एष़ुत्तालै नामक गुफा के चित्रों में हाथी, घोडा, जंगली भैंसा, हिरण आदि पशुओं के आकार और
कतिपय अमूर्त चित्र भी हैं । एष़ुत्तालै के चित्र एक के ऊपर एक इस तरह से बनाये गये
हैं, जिनसे
प्रमाणित होता है कि ये चित्रकलाएँ विभिन्न युगों की है । भित्ति चित्र, अनुष्ठानपरक रंगोली चित्र,
मुखौटे या मुख पर चित्रांकन
आदि केरलीय चित्रकला के अन्य प्राचीन रूप हैं । भित्ति चित्रों को छोड शेष चित्र आज
भी चित्रकला की परंपरा में जीवित है ।
केरल में काफी समय तक ऐसी चित्रकला का विकास नहीं हुआ जो धार्मिक अनुष्ठान से परे
हो । यहॉ मात्र अनुष्ठान के एक भाग के रूप में ही चित्रकला को स्थान दिया जाता था ।
भित्ति-चित्र को इससे पृथक माना जा सकता है । [HIGHER – 354] किन्तु भित्ति चित्रों का विषय अधिकतर
धार्मिक हुआ करता था । आधुनिक चित्रकला का आविर्भाव इस परंपरा से हटकर हुआ है । आधुनिक
भारतीय चित्रकला का इतिहास केरल से प्रारंभ होता है । राजा रविवर्मा आधुनिक भारतीय
चित्रकला के जनक माने जाते हैं, उन्हीं से आधुनिक केरलीय चित्रकला का इतिहास शुरू होता है ।
रविवर्मा ने तैलरंग नामक नये माध्यम, कैनवास नामक नये फलक दोनों का यथार्थ रूप में परिचय करवाया
दिया । इज़तरह रविवर्मा के द्वारा चित्रकला के धर्मनिरपेक्ष संसार में केरल का प्रवेश
हुआ ।
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