Monday, April 15, 2013

KGTE Typewriting Hindi Model Question Paper - Speed Lower & Higher


केरल का भोजन

केरलीयों का प्रमुख भोजन चावल है । मलयाली साग-सब्जियाँ, मछली, मांस, अंडा इत्यादि से बनी सब्जियों से मिलाकर चावल खाना पसन्द करते हैं । गेहूँ, मैदा आदि भी केरलीयों को प्रिय है । यहाँ ऐसे पकवान प्रिय हैं जो भाप में पकाये जाते हैं या फिर तैल में तले जाते हैं । मीठी खीर भी यहाँ पसन्द की जाती है । कंदमूलों को पकाकर बनाये जानेवाले खाद्य भी यहाँ खाये जाते हैं । आजकल केरलीयों के खाद्य पदार्थों, खाद्य संस्कारों तथा पाक कला में ऐसा परिवर्तन आया है जो भारत के अन्य क्षेत्रों के प्रभाव का परिणाम है, ओपनिवेशिकता के परिणाम स्वरूप विदेशी प्रभाव भी इसका कारण है ।

वर्तमान कालीन केरल में प्रांतीय भोजन के स्थान पर जो संस्कार बना है उसमें बहुदेशीय संस्कार का प्रभाव है, किन्तु चावल, भात तथा नारियल केरलीय भोजन का प्रमुख अंग है । केरल के भोजन संस्कार को रूपायित करने में धर्म, जाति-संप्रदाय, औपनिवेशिकता इत्यादि का बडा योगदान है । 15 वीं सदी में पुर्तगाली शासक लैटिन अमरिका से अनेक साग-सब्जियाँ लाए जिनका केरलीय खाद्य पदार्थों में प्रमुख स्थान हैं । यदि केरल के भोजन संस्कार का इतिहास पढ़ें तो उपर्युक्त विभिन्न स्रोतों का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होगा । केरल में भोजन संबन्धित अनेक रीति-रिवाज़ हैं । यहाँ खाना परोसने का विशेष प्रकार है । 'सद्या' नाम से अभिहित दावत या प्रीति भोज भी केरल में विशेष महत्व रखती हैं । [LOWER – 214] केरल की अपनी पाक-कला भी है । किन्तु सम्पूर्ण केरल की पाक-कला एक समान नहीं है । सामान्यतया उत्तर केरल, मध्य केरल तथा दक्षिण केरल की पाक-कला में थोडी-बहुत भिन्नता है । हिन्दू, ईसाई, मुस्लिम धर्मावलंबियों की पाक-कला एक दूसरे से भिन्न है । अक्सर गाँवों की पाक-कला में भी अंतर पाया जाता है । हिन्दू धर्म की भिन्न-भिन्न जातियों के बीच भी पाक-कला में भिन्नता रहती है । हिन्दू मंदिरों में जो प्रसाद दिया जाता है वह विशेष पाक-विधि से बनाया जाता है । सामान्यतः केरल का भोजन तीखा और खुश - सुगन्धित होता है । केले के पत्ते में भोजन करने का रिवाज़ पुराने काल से ही चला आ रहा है । बर्तनों में भोजन करने की रीति बाद में चली । आज भी प्रीतिभोज में केले के पत्ते का प्रयोग होता है।

केरल के भोजन - संस्कार का ही हिस्सा है उपवास । भोजन पर नियंत्रण करने का उद्देश्य स्वास्थ्य संरक्षण था । [HIGHER – 358] सवर्ण जाति के लोग उपवासों का अनुष्ठान करते थे । केरल में आज भी उपवासों का अनुष्ठान होता रहता है । उपवास ही भोजन-व्रत का आधार है । यद्यपि प्रत्येक उपवास स्वास्थ्य संरक्षण की दृष्टि से किया जाता है तो भी धार्मिक अनुष्ठान के रूप में उसको स्थान दिया गया है । प्रत्येक मास की एकादशी, शुक्ळ पक्ष और श्वेत पक्ष, मास का प्रथम शनिवार, श्रावण मास की चतुर्थी, संक्रान्ति, अष्टमी रोहिणी, शिवरात्रि आदि दिनों में व्रत का अनुष्ठान होता था । सोम-व्रत स्त्रियों का उपवास है । व्रत कई प्रकार के होते हैं किसी-किसी में चावल नहीं खाया जाता, पानी तक न पिया जाता, रात्रि-भोजन नहीं किया जाता । [461]

KGTE Typewriting Hindi - Model Question Paper - Speed (Lower & Higher)


केरल की चित्रकला
प्राचीन काल में जब से केरल की पर्वतीय गुफाओं में मनुष्य निवास करने लगे थे तभी से चित्रकला की परंपरा आरंभ हुई होगी । प्राचीन गुफाओं के चित्रांकन इसका प्रमाण हैं । इस प्रकार के चित्र जिन गुफाओं में उपलब्ध हैं वे हैं वयनाड की एडक्कल गुफा, इडुक्कि में मरयूर की एष़ुत्ताले गुफा, तिरुवनन्तपुरम के पेरुंकडविलयिल की पाण्डवन पारा गुफा (यह गुफा पत्थर के खनन के कारण अब नष्ट हो गयी) आदि। कोल्लम जिले के तेन्मला की चन्तरुणिवन गुफा में भी गुफाचित्र मिलते हैं । इन चित्रों में प्रधान हैं - पत्थर की दीवारों पर उत्कीर्ण किए गुफा चित्र और शिला चित्र

एडक्कल गुफा वयनाड के अंपलवयल के पास अंपुकुत्ति पहाडी पर स्थित है। यहाँ गुफा - भित्तियों पर उकेरे गये अतिप्राचीन चित्र मिलते हैं । अधिकांश चित्र पौन इंच से एक इंच तक चौडाई और एक इंच गहराई लिए हैं । चित्रों में मनुष्य की आकृतियाँ अनुष्ठान कलापरक नृत्य करते हुए उकेरी गई हैं । लगभग सभी मानव आकृतियों में पत्तों से बनाये केशालंकार दिखाई देते हैं । साथ में हाथी, शिकारी कुत्ते, हिरण आदि पशुओं की आकृतियाँ भी हैं । इनके अतिरिक्त ज्यामितीय आकार भी अंकित किये गये हैं । साथ ही धुरि सहित पहियों वाली गाडियाँ भी अंकित है । अनुमान है कि एडक्कल चित्र नवीन प्रस्तर युग में निर्मित किये गये हैं । [LOWER – 206]

तीवरि पर्वत के पुराप्पारा नामक पत्थर के द्वार पर भी इस प्रकार के चित्र हैं । यहाँ अस्त्र, कुष़िप्पारा आदि हथियारों एवं पक्षियों के चित्र भी दिखाई पड़ते हैं । मरयूर की एष़ुत्तालै नामक गुफा के चित्रों में हाथी, घोडा, जंगली भैंसा, हिरण आदि पशुओं के आकार और कतिपय अमूर्त चित्र भी हैं । एष़ुत्तालै के चित्र एक के ऊपर एक इस तरह से बनाये गये हैं, जिनसे प्रमाणित होता है कि ये चित्रकलाएँ विभिन्न युगों की है । भित्ति चित्र, अनुष्ठानपरक रंगोली चित्र, मुखौटे या मुख पर चित्रांकन आदि केरलीय चित्रकला के अन्य प्राचीन रूप हैं । भित्ति चित्रों को छोड शेष चित्र आज भी चित्रकला की परंपरा में जीवित है ।

केरल में काफी समय तक ऐसी चित्रकला का विकास नहीं हुआ जो धार्मिक अनुष्ठान से परे हो । यहॉ मात्र अनुष्ठान के एक भाग के रूप में ही चित्रकला को स्थान दिया जाता था । भित्ति-चित्र को इससे पृथक माना जा सकता है । [HIGHER – 354] किन्तु भित्ति चित्रों का विषय अधिकतर धार्मिक हुआ करता था । आधुनिक चित्रकला का आविर्भाव इस परंपरा से हटकर हुआ है । आधुनिक भारतीय चित्रकला का इतिहास केरल से प्रारंभ होता है । राजा रविवर्मा आधुनिक भारतीय चित्रकला के जनक माने जाते हैं, उन्हीं से आधुनिक केरलीय चित्रकला का इतिहास शुरू होता है । रविवर्मा ने तैलरंग नामक नये माध्यम, कैनवास नामक नये फलक दोनों का यथार्थ रूप में परिचय करवाया दिया । इज़तरह रविवर्मा के द्वारा चित्रकला के धर्मनिरपेक्ष संसार में केरल का प्रवेश हुआ । [435]